चन्दनवाडी के पास जमा ग्लेशिअर
शेषनाग झील के समीप थके यात्री
शेषनाग झील
पवित्र श्री अमरनाथ गुफा
दयालु प्रभु हमें क्षमा करें | दर्शनों के पश्चात एक लंगर में भोजन कर हम वापस अपने टेंट आ गए | ये एक किमी दूर था, तो अब यही सोचा है कि जब भी आगे जाने का अवसर प्राप्त होगा तब थोड़ा निकट टेंट लेने का प्रयास करेंगे | यहाँ चाय पी | 3950 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह पवित्र स्थान अत्यधिक ठंडा है | दिनके समय भी तापमान शायद 10 डिग्री से ऊपर नहीं जाता और रात में शून्य के आस – पास रहता होगा | हमारे वापस आने के कुछ समय बाद ही अँधेरा हो गया और फिर हमने सोने का प्रयास किया | मोबाइल बंद थे और बैग में कहीं दबे थे, घड़ी में अब अँधेरा होने के कारण समय नहीं दिख रहा था और कोई टॉर्च भी नहीं थी | तो शाम आठ बजे से सुबह पाँच बजे की लम्बी रात्रि घुप्प अँधेरे में लेते – लेते ही व्यतीत हुई | शायद नींद भी नहीं आई या एक – आध घंटे आयी हो तो पता नहीं |
सुबह हुई और एक बार पवित्र गुफा की ओर देखकर और श्रद्धा भाव से नमन कर, हम चाय पीकर वापसी की डगर पर चल पड़े | वापस उसी मार्ग से संगम तक पहुँचे, फिर दायीं ओर मुड़ गए | थोड़ा नीचे उतारकर एक भण्डारा था जहाँ चाय – नाश्ता किया | अब रास्ता उतराई भरा ही है, एक – आध स्थानों में थोड़ी चढ़ाई जरूर है पर अधिकतर उतराई ही है | रस्ते में कहीं तो एकदम से बादल आकर सब और धुंध ककर देते हैं तो कहीं ये एकदम से छंट जाते हैं |
दो – दो बैग लादे अब कंधे बहुत दुखने लगे थे, और इन के कारण बार – बार बैठना पड़ रहा था | अब इतनी यात्राओं के बाद भी यही अनुभव है कि बैगपैक के कारण कंधे दुखने से अधिक विश्राम करना पड़ता है, चलने से होने वाली थकान से भी अधिक | जगह – जगह नींबू – पानी वाले जरुर बैठे थे जिनसे बड़ी राहत थी | ठंडा मौसम भी यात्राओं में साथ देता ही है | तो इसी प्रकार रुकते – रुकाते, चढ़ते – उतरते हम बालटाल पहुँच गए | रस्ते में बहुत से या यूँ कहें सैकड़ों यात्री जो गुफा के दर्शन करने इस मार्ग से जा रहे थे, वे मिले और उन्हें देखकर मैं यही सोचता था, कि इन्हें अभी कितना चढ़ना है | इन्हें मालूम नहीं, ऊपर पहुँचते – पहुँचते इन्हें शाम हो जाएगी | प्रभु इन्हें शक्ति दें |
तो चौदह किमी की यात्रा कर, हम एक खुले से स्थान जो वैली सी है वहाँ पहुँचने लगे | दूर – दूर हरे घास के मैदान, देवदार के पेड़ और बेहद सुन्दर दृश्य | इन्हीं मनमोहक वादियों में अत्यंत विशाल बालटाल कैंप साईट है | चारों ओर फ़ूड स्टाल और टेंट ही टेंट | कहीं दूर आर्मी टेंट दिखते थे, तो कहीं यात्री और कहीं अन्य | कुल मिलाकर ये सब इतना विस्तृत था कि कुछ समझ ही नहीं आ रहा था | लंगर में भी लगे दूर – दूर तक स्टाल, कहीं शर्बत, तो कहीं फ्रूट जूस, तो कहीं पूरी – पराठे, तो कहीं मिठाई, तो कहीं कुछ, या यूँ कहें क्या नहीं ?
इस अकेले बालटाल कैंप को अगर कोई देखना और घूमना चाहे तो उसी में सुबह से शाम हो जाये | और ये इतना बड़ा हो भी क्यों न, लाखों यात्रिओं के लिए महीनों तक व्यवस्था बनानी पड़ती है तो सब इंतजाम प्रसाशन को करने पड़ते हैं | तो इन्हीं स्टालों में पेट पूजा कर हम टैक्सी स्टैंड की ओर बढ़ चले |
ये इतनी खुली और चौड़ी वादी है कि वर्णन करते नहीं बनता | टैक्सी स्टैंड तो इतना बड़ा है कि बड़े – बड़े शहरों में भी क्या होगा ? इसका कारण है, जहाँ एक बड़ी संख्या श्रद्धालुओं की बालटाल के रस्ते दर्शन करती है, वहीँ उससे बड़ी संख्या इस रस्ते से उतरती है तो दोनों ओर मिलाकर लाखों श्रद्धालु होते हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं |
यहाँ बसें, कारें, जीपें, मिनी बस, टेम्पो ट्रैवेल सब हैं | हम भी एक सूमो, या स्कोर्पियो या शायद जाईलो, अब ठीक से याद नहीं, जो भर रही थी उसमें आगे बैठ गए | थोड़ी ही देर में गाड़ी स्टार्ट हुई और सबने हर – हर महादेव का उद्घोष किया | गाड़ी एक बिल्कुल नयी बनी सड़क के सहारे सुन्दर नजारों के बीच आगे बढ़ने लगी और मैं भी अपने मोबाइल की बची – खुची बैटरी जो तीन दिनों से चार्ज नहीं थी, उससे फोटो लेने लगा | ये चार साल पहले लिया क्लासिक नोकिया एन 73 था, जिसका 3.2 मेगापिक्सल कैमरा आज बहुत से मोबाइल के 6-7 मेगापिक्सल से अधिक अच्छा था | खैर अब तो छोटे से क्रॉप सेंसर में लोग 50 मेगापिक्सेल भी ठूंसने लगे हैं जिससे पिक्चर क्वालिटी ख़राब ही हुई है |
थोड़ी देर में जीप श्रीनगर – कारगिल हाईवे पर पहुंची जहाँ से एक रोड ठीक ऊपर की ओर दायें हाथ पर कट रही थी | एक दम खड़ी चढ़ाई वाली वह रोड जोजिला पास की ओर जा रही थी, जहाँ ट्रकों की लम्बी लाइन लगी थी | हमारी जीप ने यहाँ से लेफ्ट लिया और मेन हाईवे पर आ गयी | अब हम पश्चिम दिशा की ओर बढ़ रहे थे या यूँ कहें बढ़ने का मन ही नहीं हो रहा था | इतने खूबसूरत दृश्य कि नजर ठिठक कर रह जाती थी, भारत में शायद ही कहीं और ये देखने को मिलें | कश्यप ऋषि की ये पवित्र भूमि धरती का स्वर्ग यूँ ही नहीं कहलाती |
बायीं ओर बहती कल – कल करती सिंध जो श्रीनगर के पास झेलम में मिल जाती है, और ये रोड के साथ ही साथ चलती है | इसके साथ लगे हुए घास के मैदान, शायद ही दुनिया में इससे सुन्दर कोई हरी फर्श हो और दूर तक पश्चिम से पूर्व दिशा में फैली हिमालय की अद्भुत, अविस्मर्णीय, स्वर्णिम और दिव्य पर्वतमालाएँ | ये सोनमर्ग है | जिसका नाम ही है सोने की चारागाह | पर हमारी जीप तो यहाँ से बस निकली चली जा रही थी, छोटे से सोनमर्ग को पार होने में दस मिनट से भी कम लगे होंगे | लकड़ी के होटल और कॉटेज, और सब और फैली अभूतपूर्व सुन्दरता, जैसे प्रकृति ने अपना सर्वस्व ही इस पवित्र क्षेत्र के आस – पास न्योछावर कर दिया था |
और ऐसा हो भी क्यों न, माँ प्रकृति के स्वामी भी तो भोलेनाथ ही हैं तो जहाँ शिव साक्षात् हैं वहीँ शिवा भी पूर्ण रूप में विद्यमान हैं | पर हम पहली बार आये यात्री तो इन सब से सर्वथा अंजान थे, और अधिक समय ही नहीं ले कर आये तो किस्मत को दोष देने के अलावा कर भी क्या सकते थे ? ये ऐसी जगह है, जहाँ आप घूमते नहीं बस रम जाते हैं, आँखों के रस्ते होते हुए अद्भुत और विस्मयकारी दिव्य चित्र बस ह्रदय में उतर कर वहीँ बस जाते हैं | कोई किस्मत वाले ही होंगे जो यहाँ कुछ दिवस ठहर कर इन मनोरम द्रश्यों का पान कर अपने आप को कृतार्थ करते होंगे |
हर एक पल के साथ गाड़ी श्रीनगर की ओर बढ़ती जा रही थी, और दृश्यों की विविधता और सौन्दर्य और भी अधिक बढ़ता जा रहा था, अगर धरती में कहीं स्वर्ग है तो ये वास्तव में यहीं है और यहीं है | अब इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता, बस लालची नेत्र टकटकी लगाये इन्हें देखे ही जा रहे थे, और हम मन कचोटे जा रहे थे | भला हो ड्राईवर का जो एक जगह पर उसने थोड़ी देर चाय – नाश्ता के लिए गाड़ी रोक दी और हम उतर कर वहीँ इन मैदानों में थोड़ा विचर सके | सिंध का जल भी छुआ और घास पर भी बैठे | जी भर कर हिमालय को देखा और फिर गाड़ी श्रीनगर के लिए आगे बढ़ गयी |
तो जल्दी का एक फल हमें बैलगाँव में मिला और एक सोनमर्ग में | तो आप कभी भी यात्रा पर आयें, समय अवश्य निकाल कर आयें | जल्दी न करें, प्रकृति का आनंद लेते हुए आगे बढ़ें |
सोनमर्ग जो लगभग 2700 मीटर की ऊंचाई पर है, से श्रीनगर की दूरी 80 किमी है और हम शाम पांच बजे वापस श्रीनगर पहुँच गए | जीप वाले ने डल झील के किनारे उतार दिया, और हम होटल देखने लग गए | यहाँ मौसम सुहावना है, और बस टी – शर्ट में काम हो जाता है | डल में ही एक हाउस – बोट वाले ने हमें पकड़ लिया और अपनी नांव से हमे ले गया | यहाँ तो हाउस बोट ही हाउस बोट हैं | कुछ तो फाइव – स्टार सुविधाओं से लैस हैं | हमारी एक दो बेड रूम की छोटी बोट थी, जिसमे आगे खुला हिस्सा बैठने का था | एक कमरा शायद 800 का था, और हम उसमें रुक गए |
आज तीन दिन बाद मैंने वापस शीशा देखा और थोड़ा चौंक गया | नाक काली पड़ गयी थी और उसमें पपड़ी जम गयी थी, आँख के पास का कुछ हिस्सा भी काला हो गया था | अत्यधिक ऊँचाई पर यूवी रे और अधिक ठण्ड के होने से ऐसा होता है और अब इतनी यात्राओं के बाद इसकी थोड़ी – बहुत आदत हो गयी है | नहा कर फ्रेश होकर हम बाहर डेक पर पड़ी कुर्सी में बैठ गए और मौसम का आनंद लेने लगे | इसके पीछे ही सटी बोट में बोट मालिक का घर है और उसने हमें कहवा पिलाया | तीन दिन में ही वेट लॉस नजर आ रहा था, शेविंग करने के बाद तो और भी लग रहा था | उन दिनों मैं थोड़ा दुबला भी था | बहुत हल्की सी ठण्ड थी जैसी हमारे यहाँ शुरुआती मार्च के महीने में सुबह – शाम होती है | खाने में हमने दाल – सब्जी और पराठे खाए | मुझे तो पिछली दो रातों से सही से नींद नहीं आयी थी, थकान भी बहुत थी, तो खाते ही नींद आने लगी और सो गया |
अगले दिन सुबह उठकर हम डल झील की सैर पर निकले, शिकारा हाउस बोट वाले ने ही अर्रेंज कर दिया था, बहुत हल्की ठण्ड थी | पहले शंकराचार्य हिल की ओर खुले – खुले से और सुन्दर नजारों से भरे हिस्से की सैर करायी, फिर दूसरी ओर ले गया जहाँ झील पर ही मार्केट है | ये वास्तव में एक बड़ी झील है जिसका अब बड़ा हिस्सा अवैध कब्जे में है, बहुत से हाउसबोट के ढेर हैं, झील पर ही दुकाने हैं और सब्जियाँ भी बिकती हैं | जिससे इसमें गन्दगी भी होती है | एक दूसरे शिकारे पर ही कुछ लोगों ने केसर बेचने का प्रयास भी किया |
दुकानें बहुत बड़ी हैं और हर प्रकार की हैं कुछ हैण्डक्राफ्ट की हैं तो कुछ हैण्डलूम की | हम जिस दुकान में गए वहाँ बेशकीमती पश्मीना से लेकर कालीनें, कम्बल और रजाई सब बिक रहे थे | पश्मीना हमारे बजट से बाहर की थी और कम्बल, रजाई कौन ढो कर लाता है ?