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 || ॐ नमः शिवाय ||

चन्दनवाड़ी से एक किमी पहले ही जाम था, और ड्राईवर ने हमें ये बोलकर उतार दिया कि बस थोड़ी ही दूर है और अपने सामान को साथ लिए हम चल दिए | मेरे साथ एक पिट्ठू बैग था पर उसमे सब सामान नहीं आया था, तो एक छोटा डफल बैग और ले लिया था | ऑनलाइन शॉपिंग उस समय शुरू नहीं हुई थी और मैं एक छोटी जगह पर नौकरी करता था, जिससे एक ठीक – ठाक बैगपैक नहीं ले पाया | और अब यही डफल थोड़ी मुश्किल कर रहा था | थोड़ी दूर चलते बीस मिनट हो गए और तब कैंप वगैरह दिखने लगे | यहीं इन पहाड़ों पर भोलेनाथ ने अपने ललाट पर सुशोभित चन्द्र छोड़ा था, और इसके पीछे बैल गाँव में नंदी महाराज को छोड़ दिया था, और इसके भी पीछे अनंतनाग में अपने गले के आभूषण कितने ही सर्पों को छोड़ा था |

वे अमरकथा सुनाने माता पार्वती के साथ उस पवित्र गुफा में जा रहे थे | यहाँ स्वयंसेवी संस्थाओं के बहुत से भोजन के कैंप हैं जहाँ हर प्रकार का एक से एक बेहतरीन भोजन और नाश्ता उपलब्ध है | जलेबी – पकौड़ी से लेकर पराठे – पूरी, जो मन हो खाओ | यही नहीं पानी की बोतल, बिस्कुट तक सब फ्री में था | सच्ची सेवा का ये एक बहुत बड़ा उदाहरण है, इतनी ऊँचाई में, पूरे यात्रा समय के दौरान रोज इतने मन से ये सारी व्यवस्था बनाये रखना बहुत बड़ी बात है | यहाँ हमारा रजिस्ट्रेशन चेक हुआ और आगे बढ़ने दिया गया | यहाँ से सेना का भारी जमावड़ा पूरे यात्रा रूट पर रहता है | ये यात्रिओं की बड़ी मदद करते हैं, और कोई समस्या आने पर रेस्क्यू भी करते हैं |

चन्दनवाडी की समुद्र तल से ऊँचाई 2895 मीटर है और यहाँ से हमें तीन किमी आगे खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए पिस्सू टॉप पहुँचना था | पीछे पिट्टू और कंधे पर डफल ऐसे में एक – आध स्थानों में जहाँ चढ़ने में दिक्कत हुई वहाँ सेना के जवान ने हाथ पकड़कर खींच लिया | इन्होने हर एक चीज का ध्यान रखा है कि कहाँ तैनात रहना है, कौन मुश्किल पैच है, कहाँ तक पहुँचने में शाम हो सकती है आदि |

3377 मीटर की ऊँचाई पर स्थित पिस्सू टॉप पहुँचने में शायद दो घंटे और लगे होंगे और यहीं जगह – जगह लगे भंडारों में हमने भोजन किया | यात्रा के पहले कुछ घंटों में ही 3300 मीटर की ऊँचाई तक पहुँचना, इससे समझ आता है कि ये लगातार एक हाई अल्टीत्यूड यात्रा है | पर अच्छी बात ये रही कि मौसम बिल्कुल साफ़ था और भोलेशंकर की कृपा से कल की ख़राब तबियत अब पूरी तरह से सही हो गयी थी |

पिस्सू में भोलेनाथ ने अपने पिस्सू त्याग दिए थे, कहा यह भी जाता है कि इस स्थान में एक बार देवों और दानवों का भयंकर संघर्ष भी हुआ था, जिससे ये जगह इतनी ऊँची उठ गयी | तो अमर कथा के इस पथ  धीरे – धीरे मोह – माया के बंधन छूटते जाते हैं या उन्हें छोड़ देना पड़ता है, शायद शिवशम्भू यही शिक्षा देना चाहते हैं या और कोई विराट सत्य हो जो हमारे संकीर्ण मस्तिष्क की सोच – समझ से परे हो और जिसे संत – महात्मा और साधुजन जानते हों | हाँ यहाँ बड़ी संख्या में वे भी आते हैं |

और पहले ऐसी यात्राओं में ये ही लोग आते थे, अधिकतर तीर्थ स्थलों की खोज भी इन्हीं ने की और ये दुर्गम और गुप्त स्थल इनके पवित्र तीर्थ होते थे, पर समय के साथ जनमानस की इनका पता चलता गया और उसने भी यहाँ आने का प्रयास शुरू किया, और तब यात्राओं को सुगम करने के लिए रस्ते और व्यवस्थाएं बनने लगीं | जहाँ अधिक लोगों की आवाजाही से यात्राएँ अब अपेक्षाकृत सुगम हो गयी हैं पर पहले जैसी शांति अब शायद नहीं रही | जगह के दिव्य स्पंदन वैसे ही हों पर हममें से कितने उनको महसूस कर सकते हैं ? हम शायद ऐसे दिव्य स्थलों पर जाने के योग्य ही नहीं, पर ये तो उन बाबा भोलेनाथ की असीम अनुकम्पा है जो हमें भी अपने दिव्य दर्शन करा देते हैं | पर ये भी सत्य है, की हमारी उपस्थिति ने इन साधकों को जरूर कष्ट पहुँचाया है | इस गुफा के पास भी गड़रिये को एक साधु महात्मा ही मिले थे, जिससे इस पवित्र स्थल का पता बाद में सबको लग सका |

पिस्सू टॉप से शेषनाग लगभग 11 किमी है, और अब आगे का रास्ता बहुत ज्यादा चढ़ाई वाला नहीं है, बस थोड़ी चढ़ाई – उतराई लगी रहती है, पर अपेक्षाकृत समतल है | पिस्सू टॉप पर आकर ट्री लाइन समाप्त हो जाती है, और अब इसका स्थान घास और जड़ी – बूटियाँ ले लेती हैं तो अब ऑक्सीजन की भी कमी होने लगी थी | यहाँ से थोड़ा आगे बढ़ने पर शायद एक – दो झरने पड़े थे, जिनमें कुछ यात्री स्नान कर रहे थे |

घोड़ों की अत्यधिक संख्या के कारण संभल कर चलना पड़ता है, और अक्सर इन्हें रास्ता देने के लिए रुकना पड़ता है | कहीं – कहीं रास्ता ज्यादा ही संकरा है, और यहाँ घोड़ों के भी गिरने की सम्भावना बनी रहती है | बल्कि ये कहा जाय कि अधिक तीव्र ढाल जहां हो, वहां थोड़ा उतर कर पैदल चलना अधिक सुरक्षित है, क्योंकि मैंने स्वयं घोड़ों को गिरते देखा है, इनके खुर फिसलन और सीधी ढाल पर यात्री के साथ अपना बैलेंस पूरा नहीं बना पाते | और अगर एक तरफ खाई हो, जैसा पहाड़ों पर होता ही है तो दुर्घटना की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है | अतः मेरी राय में अधिक संकरे और ढाल या फिसलन होने पर थोड़ा उतरकर पैदल चलना ही बेहतर है |

अब जैसे – जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, वैसे – वैसे हवा भी ठंडी होती जा रही थी, थोड़ी देर बैठने पर ही ठण्ड लगने लगती थी | कश्मीर और उत्तराखंड में यही अंतर है, कि अधिक उत्तर में होने के कारन यहाँ सूर्य की किरणें उतनी तीव्र नहीं और समान ऊँचाई पर कश्मीर में बर्फ पड़ने और दिखने की सम्भावना देवभूमि की तुलना में ज्यादा है और इसीलिए समान ऊँचाई पर यहाँ ठण्ड भी अधिक है |

शेषनाग के पहाड़ी शिखर काफी दूर से ही दिखने लगते हैं, और हमें लगता है कि हम बस पहुँचने ही वाले हैं पर पहाड़ों में तो ऐसा होता ही नहीं | पहलगाम से हमारे साथ चलती पूर्वी लिडर नदी इसी झील से निकली है और हमारे लगातार दायीं ओर चलती है | यात्रा शुरू होने पर ये हमारे साथ ही साथ थी पर पिस्सू की खड़ी चढ़ाई ने इसे बहुत नीचे छोड़ दिया | और अब ये वापस दिखनी शुरू हो गयी थी | और थोड़ी आगे बढ़ने पर शेषनाग झील दिखने लगी, पर ये शायद अभी भी दो से तीन किमी थी | यहाँ पर कुछ ऐसा हो रहा था जिसे मैं और शायद और भी यात्री समझ नहीं पा रहे थे | दस – पंद्रह कदम चलने पर ही थक कर रुकना पड़ रहा था, जिससे बहुत समय व्यर्थ हो रहा था | पांडेजी का भी यही हाल था, और अधिकांश यात्रिओं का भी और शाम का समय निकट आता जा रहा था, हमें थोड़ी चिंता सी होने लगी थी | कैंप साईट दिखने लगी थी, पर वो अभी भी शायद एक किमी से अधिक ही दूर होगी और सबका हाल एक जैसा ही था |

बहुत अधिक चलें तो शायद पच्चीस – तीस कदम और फिर जहाँ जगह मिली – जमीन, पत्थर या फिर धूल, उसी में बैठ गए | इसी तरह भोले शंकर का नाम लेकर बिल्कुल शाम की आखिरी कुछ किरणों के प्रकाश में, एक छोटी सी धारा पर बने पुल को पार कर हम शायद सात या फिर सवा सात होगा, कैंप साईट पहुँचे |

बिल्कुल साफ़, स्वच्छ और हरे पानी की शेषनाग झील के तट पर स्थित ये कैंप साईट इतनी बड़ी है कि लिखते नहीं बनता | हजारों टेंट और यात्री और लगभग सब फुल | वहीँ झील के चारों ओर चरते यात्रिओं के भार से आराम पाए चरते घोड़े | यहाँ आपको नाम लिखा कर रजिस्ट्रेसन कराना पड़ता है, और बहुत से टेंट  वाले खड़े रहते हैं | ये यात्रिओं की संख्या के हिसाब से टेंट अलाट करते हैं | अगर सात – आठ लोग हैं तो पूरा टेंट ले सकते हैं, हम बस दो ही थे, तो जिस टेंट में घुसे वहां पहले से ही शायद चार – पांच लोग थे | टेंट नार्मल त्रिपाल के हैं, इनके अन्दर गद्दे और रजाई हैं, पर ये सब शायद ही सीजन में कभी धुलते हों, और हाँ तब तो देश में किसी को आज फैली इस जैसी खतरनाक बीमारी के बारे में भी क्या ही पता था | हम भारतीय तो वैसे भी भीड़ के आदी रहे हैं, पर हाँ अब आगे जब भी यात्रा शुरू होगी तो क्या व्यवस्था होगी और कैसे मैनेज होगा, पता नहीं |

तो धूल – धूसरित रजाई गद्दे हमारे सामने थे, अब तो अँधेरा भी हो गया था और टेंट के अन्दर तो कोई उजाले की व्यवस्था ही नहीं तो किसे पता ये कितने गंदे हैं ? जो भी हो, किनारे सामान पटककर हम एक किनारे लगे भंडारों के पंडाल में घुस गए | अब अचानक से चलने में होने वाली दिक्कत समाप्त हो गयी थी, हम पहले की तरह ही चलने लगे थे | ये मानव शरीर भी अद्भुत है, इसमें कितनी क्षमता है ये किसी को नहीं पता, ये इतनी जल्दी परिस्तिथियों से तालमेल बिठा लेता है, इसका जवाब नहीं | अब आज नौ वर्ष बाद जब मैं कुछ यात्राएं कर चुका हूँ तो समझ में आता है कि यात्रिओं को हुई उस दिक्कत के लिए विज्ञान ने एक शब्द दे रखा है, जिसे एएम्एस ( एक्यूट माउंटेन सिकनेस ) कहते हैं | अचानक या पहले ही दिन पहाड़ों पर बहुत ऊँचाई पर आ जाने पर इस समस्या का सामना करना पड़ता है और सबसे बेहतर तो यही है कि जो हो रहा है उसे होने दें | अगर आप थक रहे हैं तो रुकें, आराम करें; चलें और फिर रुकें | भले एक – आध घंटे की देर हो पर आप सुरक्षित रहेंगे और अगले दिन के लिए आपका शरीर तैयार हो चुका होगा | जल्दी करना जोखिम भरा हो सकता है और आपको वापस नीचे भी उतरना पड़ सकता है | तो कभी भी आपके साथ ये समस्या हो, तो घबराएं नहीं, आराम – आराम से रूककर चलें | अपना समय लें और अगर ग्लूकोस पानी या निम्बू पानी या चीनी मिला ही पानी हो तो पीते रहें, शरीर शीघ्र ही तालमेल बिठा लेता है |

पर बड़ी बात ये है कि आज जब ट्रेकर इतने जागरूक हो चुके हैं, फिर भी इसका शिकार होते ही हैं और उस समय या इस समय भी अमरनाथ यात्रा में जाने वाले जनसाधारण जिनमें से अधिकांश की पहली ही पहाड़ी यात्रा होती है, उन्हें कुछ पता ही नहीं चलता, वे तो प्राकृतिक तरीके से ही बिना कुछ जाने समझे बस अपने भगवान को स्मरण कर बढ़ते चलते हैं |

तो किसी भी पहाड़ी यात्रा में अगर आप कछुए की चल चलते हैं तो आप गंतव्य तक अवश्य पहुँचेगे, खरगोश का पहुँचना यहाँ भी संदिग्ध ही है | और फिर हम यहाँ शहरों की तरह दौड़ – भाग करने थोड़ी ही आये हैं, जब हम धीरे चलते हैं तो हमारा मन भी एकाग्र होता जाता है, एक अलग ही तरह की शांति का अनुभव होता है, प्रकृति से तालमेल गहरा होता चला जाता है और कुछ गंभीरता का अंतर्मन में एहसास होता है | फिर आप उन बड़े पहाड़ों को देखते हैं और आपका अहम् चूर – चूर हो जाता है, वो बहती हवा जो आपको उड़ा तक ले जाने में सक्षम है आपके विचारों को बहा ले जाती है | प्रकृति के इस विराट अस्तित्व में आपका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है, ये इतना गौड़ है कि ये मायने ही नहीं रखता | कुछ समय के लिए ही सही ऑंखें खुलती तो हैं, एक विराट सत्ता का एहसास तो होता है | बाहरी जगत में आप कुछ हैं, किसी कंपनी के मालिक, कोई बॉस, कोई व्यापारी या नेता या कोई भी फालतू की उपमा धारक पर यहाँ आप कुछ नहीं हैं, हर ओर फैली विराटता आपको झकझोर देती है, घमण्ड चूर – चूर हो जाता है और बस यहीं सच्चाई के दर्शन हो जाते हैं |

इस झील सी निकली नदी एक सर्प की भांति दिखती है, झील जैसे उस सर्प की ग्रीवा हो और सामने उठे पर्वत शिखर जैसे उसके कई सिर हों, जैसे शेषनाग के फन | तो झील अपना दिया नाम सार्थक करती है | यहीं भोलेशंकर ने शेष को छोड़ा था, और फिर आगे गुफा की ओर बढ़ गए थे | 3350 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस झील के आगे से भूरे और नग्न पर्वत शुरू हो जाते हैं | अब घास और जड़ी – बूटियों का क्षेत्र भी समाप्त हो जाता है और आगे सीधे खड़ी चढ़ाई महागुण टॉप या गणेश टॉप तक ले जाती है |

भण्डारे में हम आराम से भोजन कर ही रहे थे, कि बहुत से पोनी वालों ने घेर लिया | सर आगे बहुत चढ़ाई है, पोनी कर लें | पंचतरणी कैंप के पास पहुँचा देंगे वहाँ से गुफा बस छह किमी ही रह जाती है | भोलेशंकर की कृपा से मैं अब बेहतर महसूस कर रहा था, साँस भी फूलना बंद हो गयी थी और विश्वास बढ़ गया था | पांडेजी के मन में थोड़ा संशय था, आज शेषनाग की उस आखिरी दो – तीन किमी की चढ़ाई ने उन्हें कुछ मुश्किल में डाला था और फिर उनकी आयु भी तो मुझसे ज्यादा थी, पर इरादे और हौसले की कोई कमी नहीं | उनके इस संशय को देखते हुए हमने पोनी कर ली, क्योकि अकेले – अकेले जाना सही नहीं | यात्रा के पूरे मार्ग में मोबाइल नेटवर्क भी तो नहीं आता, फिर हम एक दूसरे को लाखों यात्रिओं में से कहाँ ढूँढ़ते | तो हमने एक पोनी तय की, सुबह सात बजे का समय था, उसके यहीं भंडारे के पास मिलने का |

शेषनाग में बीएसएनएल का लैंड कनेक्शन एक बूथ में उपलब्ध था, शायद वहां ऐसे एक – दो बूथ होंगे | लाइन अधिक नहीं थी तो मैंने घर बात कर अपनी यात्रा का विवरण दिया और ये भी बताया कि आगे बात शायद श्रीनगर पहुँचने पर ही होगी | ( अब शायद बीएसएनएल के प्रीपेड सिम कार्ड यात्रा समय में यात्री बेस कैंप जम्मू, श्रीनगर और पहलगाम पर मिलने लगे हैं, पर नेटवर्क कहाँ – कहाँ काम करता है ये कोई जल्दी गए यात्री ही बता सकते हैं, या वहीँ से जानकारी मिल जाती होगी |)

खाना खाकर वापस टेंट में आ गए | घुप्प अँधेरा था, और पहले तो हम अपना टेंट ही भूल गए | पर पता नहीं कैसे वो मिला कुछ याद नहीं, कहाँ बिस्तर और कहाँ रजाई कुछ समझ नहीं आ रहा था बस यही जान पड़ रहा था कि बिस्तर में धूल बहुत थी और उसी में हम भी घुस गए | मोबाइल बैग में ही पड़ा था, और ऑफ था तो टाइम का भी कुछ पता नहीं चल रहा था | ये टेंट में जीवन की पहली रात थी, और नींद नहीं आ रही थी | बार – बार इधर – उधर करवट बदल रहा था | शायद पूरी रात में एक – दो घंटे ही नींद आयी होगी और फिर सुबह हो गयी |

अब कई यात्राओं के बाद मैं सोचता हूँ कि हम कितनी देर से चले | क्योंकि अधिकतर ट्रेक में आप उजाला होते ही पाँच बजे के आस – पास चल देते हैं, पर अनभिज्ञता का भी अपना ही एक मजा होता है, आप को कुछ पता नहीं तो कोई चिंता भी नहीं, और इस पहली यात्रा की मासूमियत और बेफिक्री, बस भोले पर विश्वास और भोलापन आज भी बहुत याद आता है | आज बहुत जानकारी है पर वो सुकून नहीं |

तो नाश्ता कर हम सात बजे पोनी पर सवार हुए | अब पहलगाम का अनुभव काम आ रहा था | धीरे – धीरे ऊँचाई बढ़ने लगी और झील काफी नीचे दिखने लगी | बहुत से यात्री जो काफी पहले ही चल चुके थे, वे आगे मिलते जाते थे | कुछ बैठे तो कुछ धीरे – धीरे बढ़ते पर पोनी चली जा रही थी | अब कोई नदी या धारा आगे नहीं थी बस सब ओर पहाड़ ही पहाड़ दिख रहे थे जिनमें से अधिकतर के ऊपर अब भी बर्फ जमा थी | बहुत खड़ी और 4.5 किमी लम्बी चढ़ाई के बाद हम टॉप पर पहुँच गए | शायद नौ बजे होंगे | ये ही महागुण या महागणेश टॉप है जहाँ भगवान विनायक गणपति गणेश को भी भगवान शंकर छोड़ आगे बढ़ चले थे | ये यात्रा का सबसे ऊँचा पड़ाव है, जिसकी ऊँचाई लगभग 14000 फीट या 4276 मीटर है |

इस सबसे अधिक ऊँचाई पर यात्रा का सबसे अधिक अच्छा भंडारा है, ये फाइव स्टार भंडारा है | यहाँ गाजर का हलुआ, खीर, दूध, मिठाई, पूरी, कचौड़ी, पराठे, पकौड़ी, हलवा, मिठाई, गुलाबजामुन, डोसा, टिक्की, मीठी लस्सी, नमकीन लस्सी, जलजीरा और क्या नहीं | शायद शादी में भी इतने स्टाल नहीं लगते होंगे | ये दिल्ली के किसी व्यापारी द्वारा लगवाया जाता है |

इतनी अधिक ऊँचाई, जहाँ चल कर आना ही मुश्किल है, वहाँ इतनी अधिक व्यवस्था और वो भी पूरे यात्रा समय के लिए, और लाखों लोगों के लिए, इससे अधिक भक्ति और सेवा का सच्चा उदाहरण कहाँ मिलेगा ? भगवान भोलेशंकर से अधिक दयालु भला और कौन है जो इस प्रकार अपने भक्तों का ध्यान रखते हैं | इस ऊंचाई पर जहाँ अगर एक गिलास मीठा पानी ही मिल जाये तो वो ही अमृत समान सुख देता हैं, वहाँ देश – दुनिया के सारे व्यंजनों के होना, ये क्या किसी चमत्कार से कम है ?

धन्य हैं ऐसे भक्त जो अपने सुख छोड़कर दूसरे भक्तों का ऐसे ख्याल रखते हैं, इस जमा देने वाली ठण्ड में भी महीनों जमे रहते हैं और निरंतर सेवा में रमे रहते हैं |

जय शिवशंकर || ॐ नमः शिवाय || हर – हर महादेव ||

इस शानदार भंडारे का लाभ उठाने के बाद हम पंचतरणी की ओर बढ़ चले | यहाँ से इसकी दूरी 9 किमी है और रास्ता थोड़ा ऊपर – नीचे होते हुए ढाल की ओर बढ़ता है | बैलगाँव, शेषनाग के बाद यह तीसरा यात्री पड़ाव है | यहाँ चारों ओर बस पहाड़ ही पहाड़ हैं, पानी के श्रोत भी अधिक नहीं हैं, तो महागणेश टॉप पर ही पानी भरना पड़ता है |

जब हम पंचतरणी कैंप पर पहुँचे, तो वह बिल्कुल खाली था | यहाँ भी बहुत से टेंट हैं, पर शेषनाग जितने नहीं हैं | सब यात्री यहाँ से सुबह ही चले गए होंगे और अब तो गुफा के पास भी पहुँच गए होंगे | यहीं हमने पोनी छोड़ी | वैसे यहाँ से पवित्र गुफा के थोड़ा पहले तक पोनी जाती हैं, पर पाण्डेजी अब कुछ बेहतर महसूस कर रहे थे, तो हमने आगे पैदल ही चलने का निर्णय लिया | हेलीकाप्टर भी यहीं तक जाते हैं | यहाँ से पवित्र गुफा 6 किमी की दूरी पर है | पंचतरणी की समुद्र तल से ऊँचाई लगभग 3650 मीटर है और ये एक बहुत खुली हुई ओपन वैली है जहाँ भगवान शिवशम्भू नें जटाओं से गंगा जी को खोल दिया था | यहीं पर उन्होंने प्रकृति के पांच तत्व; प्रथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश भी छोड़े | यहाँ छोटी – छोटी पांच धाराएं भी हैं और इनके कारण भी इसका ऐसा नाम पड़ा |

जगह बहुत सुन्दर है, और यहाँ तेज हवाएँ चलती हैं, अब हमें यहाँ से आगे संगम के लिए बढ़ना था | संगम अर्थात जहाँ दोनों यात्रा रूट पहलगाम और बालटाल वाले आकर मिलते हैं | संगम की दूरी यहाँ से तीन किमी थी और रास्ता थोड़ा मुश्किल था | पहले एक पहाड़ के ऊपर चढ़ना था, जिसमे बहुत से छोटे – बड़े पत्थर और शिलाएँ थीं | उनमे से जगह बनाकर आगे बढ़ते जाना था, और फिर इसके बाद संकरा रास्ता आरंभ होता था | हेलीकाप्टर का शोर भी संगम तक आपका पीछा करता है, क्योंकि ये दोनों ही ओर - बैलगाँव और बालटाल की ओर से उड़ान भरते हैं और पंचतरणी इनका गंतव्य है |

वृद्ध और जरूरतमंद यात्री इसके बाद पोनी या पालकी से गुफा के पास तक जा सकते हैं | पंचतरणी में हमें पहुँचते शायद 12 बज गए होंगे, समय अब ठीक से याद नहीं पड़ता और संगम पहुँचते शायद दो बज गए होंगे | संगम में अचानक यात्रियों की संख्या बढ़ने लगती है क्योंकि अब दोनों ही ओर के यात्री हर – हर महादेव का घोष करते हुए एक दूसरे से मिलते हैं | यहाँ एक स्थान से दो -तीन किमी दूर स्थित गुफा के पहले दर्शन होते हैं और सब ॐ नमः शिवाय का जयकारा लगाते हैं |

यात्रा में अभी तक मौसम ने हमारा बहुत साथ दिया था, न तो हमारे पास बैग कवर करने के लिए कोई वाटरप्रूफ कवर था, न कोई हाईकिंग शू | पहला ट्रेक था, हम नए यात्री थे तो बस ऐसे ही चले गए थे | अब जब सब सामान से लैस होकर मैं निकलता हूँ तो कभी – कभी इस यात्रा के वे दिन याद आते हैं, चिंता थी तो बस एक बात की कि किसी तरह भगवान के दर्शन करने हैं, और भगवान का आशीर्वाद भी मिला और बहुत मिला | पर अब व्यर्थ चिंता होती है सामान की |

तो स्पोर्ट्स शू में हम बढे चले जा रहे थे, रास्ता संगम के बाद दो किमी तक बहुत संकरा है, नीचे काफी गहरी खाई है जिसमें कोई जल – धारा बहती रहती है | यहाँ तेज बारिश आने से यात्रिओं को मुश्किल हो सकती है क्योंकि ऊपर स्थित पहाड़ों से मलवा आने का भय रहता है | तो सदा भोले का ध्यान कर सावधानी से चलना चाहिए, क्योंकि बारिश होने पर भी मलवा कुछ ही जगहों से आता है और आपकी सावधानी आपके बहुत काम आती है | पर सबसे बड़ी बात मन में भोले का नाम हो तो वैसे भी डरने की कोई बात नहीं |

पवित्र गुफा से एक किमी पहले ही छोटे – छोटे टेंट चालू हो जाते हैं, जो गुफा से कुछ 100 मीटर पहले समाप्त होते हैं | गुफा से पहले वाले टेंटों में पूजा के सामान, प्रसाद, भगवान की फोटो इत्यादि मिलती है | हम इन टेंटों की पंक्तियों के पास पहुँचे ही होंगे कि बहुत हलकी फुहारें पड़नी चालू हो गयीं | कुछ एक टेंटों को पार कर हमने एक टेंट में अपना सामान रखा | हमारी इच्छा थी कि किसी आगे वाले टेंट में रुका जाय जिससे दर्शन करने में आसानी हो, पर फुहारें न थमती देख हम उसी टेंट में रुक गए |

सामने ही गैस गीजर से पानी गर्म कर पचास रूपए बाल्टी के हिसाब से नहाने को मिल रहा था | ठण्ड यहाँ बहुत थी तो हमारे मन में दुविधा थी | एक तो दर्शनों की भी लालसा थी, पता नहीं कितनी लम्बी लाइन होगी, क्योंकि सुन यही रखा था कि बड़ी लम्बी लाइन लगती है और ऊपर से बारिश से बढ़ी ठण्ड |

समय शायद तीन बजे का होगा, पर नहा कर दर्शन करने की बात ही कुछ और होती है तो हमने भी उन बर्फीली हवाओं के बीच जल्दी से कपड़े उतारे और दो मिनट में गर्मागर्म पानी से नहा कर वापस टेंट में घुस कर कपड़े पहन लिए | अब बारिश थोड़ी तेज होने लगी थी, तो हम वहीँ रजाई ओढ़ कर बैठ गए | चल रहे थे, तब तक तो ठीक था, पर बैठते ही ठण्ड लगने लगी थी | शायद चाय टेंट वाले ने मंगाकर दी | यूँ ही करीब आधा घंटा हम बैठे रहे और बारिश भी होती रही, और तब मैंने पाण्डेजी से कहा, कि रेन कोट पहनकर निकला जाय वरना शाम हो जाएगी | भोले की कृपा है, दर्शन हो जायेंगे |

मेरी रेन कोट कैप संगम से पहले तेज हवा में कहीं उड़ गयी थी तो मैंने एक पॉलिथीन सिर पर लपेटी और साफ़ कपड़े पहनकर ऊपर से रेन कोट डाल लिया | पाण्डेजी पीला कुर्ता – पैजामा लाये थे, वो पहनकर उन्होंने भी ऊपर से रेन कोट पहना और हम निकल पड़े बाबा अमरनाथ के दर्शनों को | अभी हम एक छोटी धारा के दायें चल रहे थे, आगे ये धारा जम गयी थी और इस जमी हुई धारा को संभल कर पार करने के बाद हम बायीं ओर वाले पहाड़ से सटकर बने रस्ते से आगे बढ़ने लगे | कहीं – कहीं ऊपर से मलबा भी आ रहा था, तो संभल कर चलना पड़ रहा था, पर कहीं खाई नहीं थी इसलिए डरने की कोई बात नहीं थी |

रस्ते में एक – आध जगह ग्लेशियर भी मिले, वे ज्यादा चौड़े नहीं थे हाँ पर रपटने का बहुत डर था तो संभल कर पार करे | अगर सहयात्रियों के पैरों के निशान न होते तो हम पक्का गिरते | उन्हीं निशानों में पैर फंसा कर हम उन्हें पार कर गए | हाथ में लिए डंडों ने बहुत बैलेंस बनाया | इसी प्रकार हम वहाँ तक पहुँच गए जहाँ से पूजा सामग्री के टेंट चालू हो गए थे | इन्हीं में से किसी टेंट से हमने प्रसाद लिया और आगे बढ़ गए |

अब हम गुफा के बिल्कुल ही सामने पहुँच गए थे | बहुत विराट गुफा है, ऊँचाई शायद 35 – 40 फीट के आस – पास होगी, गहराई भी बहुत है | यहाँ से आगे मोबाइल और कैमरा प्रतिबंधित थे तो सामने ही लाकर में जमा करे | एक सुखद आश्चर्य से सामना हुआ, या यूँ कहें भोलेशंकर का असीम आशीर्वाद और प्रसाद प्राप्त हुआ | जहाँ आम दिनों में कई – कई मीटर लम्बी लाइन और घंटों बाद दर्शन होते हैं, वहीँ हमारे सामने तो बस गुफा थी, जैसे हमें अपने दिव्य दर्शनों के आमंत्रण दे रही थी | जय बाबा अमरनाथ ! इनके समान कृपालु भला और कौन होगा ? बाबा तो सच में अवढरदानी हैं | भक्तों का इतना ध्यान ! ॐ नमः शिवाय |

बस अब हमें शायद कोई 20 – 25 सीढियाँ और चढ़नी थीं, और नंगे पाँव हमने चढ़ना शुरू किया | जैसे पैर बर्फ की सिल्ली पर पड़ रहे हों, रखते ही नहीं बन रहे थे, नंगे पत्थर और बेहद ठंडे और पैर तो बिल्कुल गले जा रहे थे | बड़ी कठिन स्थिति थी, पर हम भोले का नाम लेकर पवित्र गुफा के प्रवेश तक पहुँच गए |

सामने विराट रूप में महादेव दर्शन दे रहे थे, अब जब यात्रा शुरू हुए कोई पंद्रह दिन के आस – पास हो गए थे, तब शिवलिंग थोड़ा पिघला अवश्य था पर अभी भी बहुत विशाल, दिव्य और अलौकिक था | पास ही माता गौरी और गणेशजी के भी हिम विग्रह थे |

सबने ॐ नमः शिवाय का जयकारा लगाया | इस समय इस पवित्र गुफा में चार – पांच श्रद्धालु ही रहे होंगे, व्यवस्था सँभालने वाले कुछ सेना के जवान भी थे |जी भरकर बाबा बर्फानी भोलेनाथ के दर्शन करे, पंडितजी थे या नहीं, ये ध्यान नहीं पड़ता | सेना के जवानों ने ही शायद हिमलिंग से प्रसाद स्पर्श करा कर वापस दिया | भगवान की बड़ी असीम अनुकम्पा थी हम पर | पहले तो यात्रा का विचार आना, फिर सुगमता से यात्रा होना और फिर उससे भी अधिक सुगमता से दर्शन | मन भावविभोर होकर गद्गद् हुआ जा रहा था, जैसे साक्षात् परमेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त हो रहा हो | इसी प्रकार हमने माता पार्वती और श्री गणेश के हिम विग्रहों के दर्शन करे | माता – पुत्र का आशीर्वाद और अनुग्रह प्राप्त कर, माथा टेककर हम वापस नीचे उतरे |

अभी भी वापस दर्शन करने वालों की संख्या अधिक न थी, मन में एक बार फिर दर्शन की लालसा हुई पर पता नहीं हम क्यों वापस नहीं गए, जबकि पता था कि ये अवसर बार – बार नहीं प्राप्त होता | और आज 9 वर्ष बीत गए, तब लगता है कि एक बार और चले जाते | शायद यही भूल हमने अगले दिन करी, और सुबह उठकर वापस बालटाल की ओर बढ़ गए |

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