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देवता

घास के मैदान या बुग्याल, ढलानों पर देवदार के पेड़, चरती भेड़ें, साथ ही कल – कल बहती  निर्मल धारा और कुछ ऊँचाई पर बने सीढ़ी नुमा खेत और उन्हें जोतते छोटे पहाड़ी बैल और इन सब को निहार रही थीं बर्फ से ढकी हिमालय की दिव्य और रहस्यमयी चोटियाँ जो एक तरह से इस दिव्य क्षेत्र की अभिभावक भी थीं |

गढ़वाल और कुमाऊँ के ऊपरी इलाके और गाँव ऐसे मनोरम और दिव्य दृश्यों से भरे पड़े हैं और वास्तव में उन्हीं ने जीवन का लाभ लिया, जिन्होंने कम से कम एक बार तो ऐसे अद्भुत दृश्यों का पान किया | साफ़ नीला आकाश, सुगन्धित वायु, महकते फूलों, जड़ी - बूटिओं और देवदार से आच्छादित मटकती पगडण्डियाँ और, और वे रात को धरती पर उतरते असंख्य चमकीले तारे जिन्हें हम बचपन में गिना करते थे, साफ़ दिखती आकाशगंगा और हाँ वो अकल्पनीय शांति, आज फिर ये आवारा मन वापस अपनी दुनिया पहुँच गया था |

जहाँ साक्षात् भगवान गौरीशंकर का वास हो वो क्षेत्र देवभूमि ही हो सकता है और वो क्यों न अपनी ओर खींचे ? तो अब इसमें मन का दोष कहाँ रहा ? अब अगर शरीर कहीं और रहना चाहे तो रहे पर मन को कौन रोक सकता है, ये तो सर्वथा स्वतंत्र है इसे तो जबर्दस्ती पकड़ना पड़ता है और जरा सी ढील मिलते ही, जैसे पानी ढाल की ओर भागता है वैसे ही ये उसकी विपरीत दिशा जहाँ धरती आकाश से मिलती है, हिमालय की उसी अलौकिक भूमि की ओर भागता है |

देवता वे होते हैं जो कुछ न कुछ देते रहते हैं, लुटाते रहते हैं और हिमालय भी इसी कारण से देव भूमि कहलाता है | गंगा, जमुना, सतलुज, घाघरा, सिंध, रावी, चिनार, व्यास, शारदा, गण्डकी, ब्रह्मपुत्र, झेलम और न जाने कितनी बड़ी और छोटी नदियों का ये पिता है और ये न सिर्फ भारत बल्कि एशिया के एक बड़े भू – भाग की न सिर्फ प्यास बुझाती हैं बल्कि उन्हें भोजन भी कराती हैं | भारत की तो लगभग साठ प्रतिशत आबादी ही इनके जल पर निर्भर है और इनके किनारों पर बसी है | इनके बिना न तो जल है, न भोजन तो न ही जीवन | इसका अर्थ ये है कि कम से कम 60 प्रतिशत लोगों का जीवन तो हिमालय से ही है और अगर नेपाल, चीन, तिब्बत और दो और पड़ोसियों की बात की जाय तो ये संख्या कम से कम 150 – 160 करोड़ तो है ही |

जब सिर्फ इसके जल पर इतनी बड़ी आबादी का जीवन निर्भर करता है तो इसे देवता ही मानना पड़ेगा और अगर मन ऐसे देवता के चरणों में टिका रहता है तो गलत क्या है ? पर देवता तो देते रहते हैं थोड़ा देने में न इनकी प्यास बुझती है और न थोड़ा लेने में हमारी | अब ये हमें विशेषकर उत्तर- भारत को बारिश भी देता है, मानसूनी बादल इससे टकरा – टकराकर हार जाते हैं और फिर रोते हुए बरसने लगते हैं और इन आसुओं को ग्रहण कर हमारी धरती शश्य - श्यामला हो जाती है, इसकी प्यास बुझती है, इस पर हरियाली पनपती है, वृक्षों को जीवन मिलता है, फल – फूल - फसलें उगती हैं और अतिरिक्त पानी इसके गर्भ में चला जाता है और आज – कल ये ही भूमिगत पानी सबसे ज्यादा काम आ रहा है | तो सिर्फ नदियाँ देकर इसे संतोष न हुआ तो इसने बारिश भी दे दी, जिसने पौधे उगाए, फसलें दीं और हमें शुद्ध वायु और भोजन प्रदान किया तो फिर हम शुद्ध वायु और भोजन के लिए भी इसके ऋणी हो गए |

तो हमारा जल भी इससे है, हमारी वायु और हमारा भोजन भी पर इसे पता है कि सिर्फ इतने से मानव खुश नहीं हो सकता, इससे जीवन मिल जायेगा पर और कुछ भी की इच्छा तो बनी रहेगी | अब इसने अपनी ही नदियों से अपने को घिस – घिस कर बेशकीमती खनिज और बालू दी जिससे मकान बने, पत्थर दिए जिनसे मंदिर बने और इसकी बेशकीमती लकड़ियों से न जाने कितनों के आशियाने सजे |

सर्दियों में पड़ने वाली बर्फ को ये अपने से चिपकाकर रखता है ताकि गर्मियों में उसे पिघलाकर हमें जल दे सके, और तो और पृथ्वी का तापमान भी नियंत्रित रहे जिससे मानव सुख पूर्वक रह सके ये इसका भी ध्यान रखता है और इसकी यही असीमित बर्फ विश्व के तापमान को नियंत्रित रखती है |

सब सुख – सुविधाओं का भोग कर लेने पर मानव शांति की तलाश में भटकेगा, ये इसे पहले ही पता था और इसके पुत्रों को कहीं और न भटकना पड़े इसका ख्याल रखते हुए इसने अपने ह्रदय में ऐसे अनेक रमणीय और मनोहर तपोस्थल बनाये जहाँ सहज ही शांति की अनुभूति होती है और इस कारण इस दिव्य और पुण्य भूमि पर जहाँ – तहाँ देखते ही देखते ऋषि – मुनियों के पवित्र आश्रम बन गए जहाँ आध्यात्मिकता का प्रादुर्भाव हुआ जिसे इसकी शीतल और सुगन्धित वायु ने पूरे जगत में प्रचारित और प्रसारित कर दिया |

इसी आध्यात्मिकता ने इस देश को आज भी जीवंत औए शाश्वत रखा है, ये वो देश बन गया जो ज्ञान लुटाता रहा और मुक्ति की खोज करता रहा | जल – जीवन – भोजन – आध्यात्मिकता और मोक्ष जब सब कुछ इससे ही है तो फिर तो मन इसके ही चरणों का अधिकारी है और शायद यही कारण है कि जगत के प्राण महादेव और माँ गौरी का ये निवास स्थल है और इससे इसकी विराटता, महत्ता, दिव्यता, अलौकिकता, मनोहरता और जितनी भी शुभ और अनुपम उपमाएँ हैं वे करोणों गुना बढ़ गयीं और जहाँ स्वयं महादेव वास करते हों उससे अधिक शुभ, पवित्र और दिव्य भला और कौन सी भूमि होगी ?

बहुत से पवित्र तीर्थ इसकी गोद में बस गए, वैसे तो स्वयं इसका कण – कण ही तीर्थ है; इसके पर्वत, वन, गुफाएँ, नदियाँ सब परम पवित्र हैं; पाँच कैलाश पर्वत हैं, पाँच बाबा केदार मंदिर हैं और पाँच बद्री भी हैं इसके अलावा बहुत से धाम हैं, पवित्र गंगा – जमुना नदियाँ हैं, गोमुख और तपोवन जैसी तपोस्थली हैं और नंदा देवी और अन्नपूर्णा जैसी न जाने कितनी दिव्य पर्वतमालाएँ हैं |

इसी दिव्यता ने न सिर्फ संतों को अपितु जनमानस को भी सदा से आकर्षित किया है और वे इसके पवित्र स्पंदनों का लाभ लेने के लिए दुर्गम तीर्थ यात्राएँ करते रहे हैं | इन लम्बी, कठिन और पैदल यात्राओं में उन्हें मनोहारी प्रकृति देखने को मिलती थी, संतों का साथ मिलता था, ठण्डी शीतल हवाएँ सारे विचार उड़ा ले जाती थीं और मन को असीम शांति मिलती थी | अपने आराध्य का नाम ले वे आगे बढ़ते जाते थे, क्योंकि इस दिव्य भूमि पर वे उनके ही दर्शनों की अभिलाषा लिए आते थे, और इन दुर्गम रास्तों पर भगवान के नाम का जप उनका एकमात्र सहारा, संबल और विश्वास होता था और महीनों की कठिन पैदल यात्रा के बाद जब उन्हें अपने आराध्य के दर्शन होते थे तब वे भावविभोर हो जाते थे और सही अर्थों में दर्शन का लाभ पाते थे |

ऐसे पवित्र लोगों और संतों का साथ और भगवान के नाम का सतत स्मरण और उच्चारण वहाँ के पवित्र स्पंदनों को और भी अधिक दिव्य और शक्तिशाली बनाता था और इसका लाभ हर एक को मिलता था | ये इतना प्रभाव डालते थे कि साधारण जनमानस जिसे ध्यान का कोई अभ्यास नहीं था वो भी सहज इस अवस्था को स्वतः ही प्राप्त हो जाता था और इसकी दिव्यता के गुणगान करते वापस लौटता था |

वहाँ मिले संतों के संग, उनसे मिले ज्ञान और शांत – स्थिर मन का लाभ समाज को भी मिलता था और इससे देश में आध्यात्मिकता का प्रचार और प्रसार होता था जिससे देश के लोगों में सरलता, संतोष, सौहार्द, भक्ति और कर्मठता की भावना का विकास होता था और ये ऐसे गुण थे जिन्होंने इस धरा को सबसे अलग और सबसे धन्य बनाया | लोग जप – तप – हवन में विश्वास करते थे जिससे वातावरण शुद्ध बना रहता था, पेड़ो की पूजा करते थे जिनसे वन सम्पदा सुरक्षित थी और तो और जानवरों तक का सम्मान करते थे और उनकी महत्ता जानते थे जिससे प्रकृति संतुलन में रहती थी | इन सब बातों से लोगों में संयम आता था, भक्ति का विकास होता था और वे छल – प्रपंच – लालच इत्यादि बुराइयों से दूर रहते थे | इन सब कारणों से सब ओर शांति और खुशहाली देखी जा सकती थी जहाँ सभ्यता, संस्कृति और समृद्धि अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँची |

और पूर्व से पश्चिम तक फैली उत्तर दिशा में स्थित हिमालय की पर्वतमालाएँ और चोटियाँ अपने पुत्रों की इस अध्यात्मिक और लौकिक उन्नति देखकर आनंद से भर जाती थीं, लोग भी कृपा मानते थे  आखिर ये सब उन्हीं से तो थी |

मानव को कोई रोग न परेशान करे इसके लिए इसने अनेकों दिव्य औषधियाँ और जड़ी – बूटियाँ भी प्रदान करीं, इनमें से बहुत सारी आयुर्वेद का मूल हैं | इस धरा पर रहने वालों को उत्तर से चलने वाली बेहद ठण्डी हवाएँ जो तिब्बती पठार को झकझोरे रहती हैं, वे न परेशान करें इसकेलिए इसने अपने आप को बेहद ऊँचा उठा लिया और उन तूफानी हवाओं को आज भी अपने सीने पर झेल रहा है |

जब कहीं सभ्यता संस्कृति और सम्रद्धि चरम पर पहुँचती है तो वो पूरी दुनिया को आकर्षित करती है और ऐसा ही भारत के साथ हुआ, पाँचवी शताब्दी से ही इसने विदेशियों के आक्रमण सहे, उनका सामना किया पर जैसे – जैसे समय बढ़ा, ये बढ़ते ही चले गए | लोग यहाँ आने को इतने लालायित थे की उन्हें जो मार्ग मिला जल या थल उससे पहुंचे |

जो आस – पास थे वे थल मार्ग से पहुँचे, जो दूर थे वे खोजते जल मार्ग से पहुँचे और एक महानुभाव तो भारत ढूंढते अमेरिका पहुँच गए | अच्छे लोग सबको अच्छा समझते हैं और बुरे सबको बुरा इसका बहुत बड़ा नुकसान इस देश ने उठाया, इसकी आत्मा ने बहुत कष्ट सहे, पर ये इसकी आध्यात्मिकता ही थी कि लोग एक डोर से बंधे रहे और इसे जीवंत रखा | आध्यात्मिकता का उद्भव, प्रचार – प्रसार सब तो हिमालय से ही हुआ है अतः इस देश को लगातार जीवंत रखने और इसकी सभ्यता अक्षुण्य रखने में इसका सर्वोपरि योगदान है |

इतना भी देने से इसका पेट नहीं भरा, जब स्वतंत्र भारत ने ऊर्जा चाही और इसकी नदियाँ रोककर उनपर बाँध बना दिए और विस्फोट कर इसे बड़ी चोट पहुँचाई और बड़ा कष्ट दिया, तब गलत होने पर भी इसने उनका बनना भी स्वीकार किया और देश को ऊर्जा दी |

ऊर्जा मिली, उन्नति के साधन बढ़े तो लोगों की सतही श्रद्धा भी बढ़ी, भगवान् के दर्शनों की लालसा भी बढ़ी पर जीवन खतरे में डालकर, और कष्ट सहकर कौन उनके दर्शनों को जाए, इतना विश्वास और इतना समय लोगों के पास नहीं है पर देवता लोगों का कष्ट समझते हैं और इसने अपने सीने पर विस्फोट सह – सह कर सड़कें बनने दीं जिनसे लोगों को सुविधा हुई, आवागमन के साधन बढ़े और लोग भी |

पर इससे यहाँ रह रहे तपस्वियों को जरुर बड़ी हानि हुई, उनकी शांति भंग हुई और उन्हें वे सुखद स्थल छोड़ दूर निर्जन और दुर्गम स्थलों पर जाना पड़ा | इससे यहाँ के आध्यात्मिक वातावरण को भी बहुत हानि पहुँची क्योंकि साधना के भी चरण होते हैं और हर साधक के लिए एकदम से ऐसे दुरूह और दुष्कर स्थलों पर जाना संभव नहीं, पर देवता तो देता ही रहता है आज भी यहाँ इन स्पंदनों की कमी नहीं पर इन्हें ग्रहण कर जन – जन में पहुँचाने वाले साधकों की कमी अवश्य हो गयी और इससे देश की बहुत बड़ी हानि हुई |

देव तो देते रहते हैं और मानव लेने में कहाँ पीछे रहता है चाहें वो सामने वाले का सब कुछ ही क्यों न छीन ले और मानव ने इसके वन उजाड़ इसकी हरियाली छीन ली, नदियाँ रोक लीं, विस्फोट कर – कर इसे बहुत कमजोर कर दिया, इसकी सुन्दरता छीन ली, जड़ी – बूटियाँ छीन लीं, वातावरण गर्म कर इससे लिपटी इसकी बर्फ छीन ली, और सबसे बढ़कर इससे प्यारे आध्यात्मिक साधक छीन कर इसके आध्यात्मिक वातावरण पर प्रहार किया या यूँ कहें इसकी आत्मा पर बड़ा प्रहार कर दिया पर ये न जाना इसकी आत्मा तो भारत की ही आत्मा है, तो नुकसान किसका किया ?

और ये सब क्या इसने अपने लिए सहेज रखे थे ? ये सब हमारे लिए ही थे और हमारी जरूरत के हिसाब से ये हमको उपलब्ध कराता रहता था पर हमने इन स्वयं सहज मिलने वाली प्राकृतिक चीजों को एकदम से ही छीन लिया और अब हुआ क्या ?

बिजली मिली, खूब मिली, बाँध बने पर नदियाँ सूख गयीं | आज हर दो राज्य आपस में पानी के लिए लड़ रहे हैं पर ये है कहाँ ? फल पककर स्वयं गिर रहा था पर हमने कलियाँ ही तोड़ लीं तो फल की आशा नितांत मूर्खता ही है | वन काटे, खूब काटे खूब बहुमूल्य लकड़ियाँ बेचीं, वहाँ सड़कें बनीं, नए शहर बसे अब तापमान बढ़ने पर दुखी हैं | हिमालय की बर्फ समय से पहले पिघल जाती है जिससे बाद में नदियों में जल कम हो जाता है और रही सही कसर बाँध इसे रोककर पूरी कर लेते हैं, गंगा जैसी विशाल नदियाँ भी गर्मियों में बेहद संकरी धारा सी हो जाती हैं और इनके बेड का सत्तर से अस्सी प्रतिशत हिस्सा सूखा ही रहता है |

पर ये देवता अब भी दे रहा है और बीच – बीच में हमें अपने क्रिया – कलापों के लिए सावधान भी कर रहा है, क्या इसका विनाश कर हमने स्वयं अपना ही विनाश नहीं कर लिया, जब जल – भोजन – जीवन सब इससे ही है तो फिर कर लिया |

स्वतंत्र बहने वाली नदियों को बंधन रास नहीं आते इनसे छेड़छाड़ प्रकृति से छेड़ छाड़ है और इसकी परिणिति एक और भी तरह से होती है | बांधों से बड़े जलाशय बनते हैं जहाँ बड़ी मात्रा में पानी वाष्पीकृत होता है और यही जल वाष्प बारिश में बादलों से मिलकर विस्फोट करती है जिससे पहाड़ों में बादल फटने की घटनाओं में बड़ी तेजी आयी है और बड़ी हानि होने लगी है |

तो फिर चाहें वन कटने से गर्म होता वातावरण जिससे पिघलती बर्फ और सिकुड़ती नदियाँ, और ग्लेशिअर पिघलने से उफनते समुद्र जिनसे खतरे में आती करोड़ों की तटीय आबादी, गर्म होते समुद्र और इनसे कमजोर होता मानसून, और इन सब के मूल में मनुष्य का लालच, कुछ और पा लेने की अभिलाषा जिससे होता और अधिक दोहन और इसका अधिक और अधिक होना ही आज की विकास दर कहलाता है, यही जी.डी.पी. है और यही ग्रोथ है |

अनियंत्रित होती जनसँख्या और लालच आज विनाश के यही मूल हैं, और इन मूल के भी मूल में है लुप्त आध्यात्मिकता और ये सब बेबस होकर देखती वही ऊँची चोटियाँ और पर्वतमालाएँ |

उन घास के मैदानों, कल – कल बहते झरने, इठलाती हुई धारा, देवदार के वृक्ष, खेत जोतते पहाड़ी बैल और इन्हें देखकर आनंदित होतीं वे दिव्य चोटियाँ अपने स्पर्श से शीतल और सुगन्धित हुई वायु को हम तक भेज शायद यही कह रही हैं, वापस आजा पुत्र आज भी हमने तुम्हारे लिए कुछ प्रकृति बचा रखी है, कुछ स्पंदन बचा रखे हैं, इन्हें और पवित्र और गहरा कर, स्वयं लाभ लेकर औरों को भी इनका लाभ करा और इस देश, इस धरा और इस भूमि को वापस देव भूमि बना |

हवाओं के साथ वापस सैर से लौटे मन ने ये सन्देश कानों को सुना दिया क्या आपने भी इसे सुना ?

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