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क्या हम टर्न ऑफ कर सकते हैं

  • Writer: Vishwa
    Vishwa
  • Oct 27, 2017
  • 6 min read

जब हम छोटे थे, मिड नाइनटीस, यहाँ पर मैं उत्तर भारत की बात कर रहा हूँ, लखनऊ में शायद ही कोई बारिश का सीजन रहा हो जब बारिश अनुमान से कम रही हो, जम कर बारिश होती थी, कभी- कभी लगातार ६-७ दिन और पूरे तीन महीने ऐसा ही मौसम रहता था; मौसम इतना ठंडा हो जाता था कि आपको पंखा तक बंद करना पड़ता था, या बहुत धीरे चलाना पड़ता था, और जब बारिश ख़त्म होती थी, ठण्ड दरवाजे पर दस्तक दे रही होती थी |

ये सब तब की बात है, जब ए.सी. नहीं होते थे, और आपको ए.सी. चाहिए भी क्यों? लू अप्रैल के मध्य से शुरू हो जाती थी और प्रायः जून के मध्य तक रहती थी, मानसून समय से - २० जून तक आ जाता था और लू के ये दो महीने इतने भयंकर होते थे कि दस से पांच के बीच सब वीरान हो जाता था, लगभग दो दर्जन धूल भरी आँधियाँ और तूफान आते थे जिनके बाद हलकी बारिश होती थी |

लू अत्यंत खतरनाक होती थी और लम्बे समय तक चपेट में आना घातक सिद्ध होता था, ये लू अभी भी चलती है पर बस 15-२० दिनों के लिए | तो ये अच्छी बात है कि अब गर्मी कम हो गयी है , पर ऐसा है नहीं |

लू जिसने अंग्रेजों को हिमालय में शरण लेने के लिए मजबूर कर दिया , अत्यन्त उच्च तापमान और कम नमी पैदा करती है और कुछ बीमारियाँ जैसे मलेरिया इत्यादि इस मौसम में नहीं होती हैं, तो जब उस समय मौसम इतना गर्म था तो क्या कारण था कि लोगों के पास ए .सी. नहीं होते थे ?

पैसा एक कारण था, पर उससे भी ज्यादा था जरुरत , तब जरुरत ही नहीं थी - ये सब मजाक लग रहा होगा - गर्मी और कोई जरुरत नहीं - पर ऐसा ही था | जब दो महीने लू चलती थी तो वो दो महीनें कूलर जम के काम करते थे और जबर्दस्त नेचुरल कूलिंग मिलती थी और जब लू सिमटती थी तब मानसून दरवाजे पर दस्तक दे रहा होता था और मानसून से मेरा मतलब है अच्छा मानसून न कि आज का सिर्फ नाम का, आप पंखे में ही आराम महसूस करते थे | तो ऐसा क्या हुआ इन 15-20 सालों में कि लू सिमट के 15-२० दिन रह गयी और ए.सी. लक्ज़री से जरुरत बन गए |

क्लाइमेट चेंज, औद्योगीकरण, बेइंतहा बढ़ती गाड़ियाँ, जनसँख्या विस्फोट और इनकम सबने हाथ मिला लिया जिससे औसत गर्म दिनों की संख्या बढ़ने लगी, जबकि औसत लू वाले दिनों की संख्या गिरने लगी, मानसून अब प्रायः १० जुलाई के बाद आता है और लू जून आते आते बंद हो जाती है, और छोड़ जाती है एक महीना, गर्म और ह्यूमिड , जबर्दस्त नमी वाला, और अगर आप इसमें तीन महीने और कमजोर मानसून के जोड़ लें - क्योंकि २००४-५ के बाद शायद ही कोई ऐसा सीजन आया हो जब मानसून औसत से ज्यादा रहा हो - तो ये तीन महीने और, आपको ए.सी. की शरण लेने को मजबूर कर देते हैं |

२०१४ -१५ में लगातार सूखा पड़ा और २०१६ में औसत से कम बारिश पड़ी, अब बादल आते तो हैं, पर उनमे वो नमी नहीं रही जिससे वो जमकर बरसें, अब वो आते हैं, हेल्लो - हाय करते हैं और कहते हैं बाय - बाय, आप भी बाय कर अपने कमरे में घुसते हैं और पसीना – पसीना हो ए.सी. चला लेते हैं - अब आपके पास पैसा है - पर इससे ज्यादा अब ये आपकी जरुरत है |

IMD क्या कहता है

वैज्ञानिक अब सूरज और बादलों के बीच एक सम्बन्ध की बात कह रहे हैं , गर्मियों में जब लू चलती है तो उससे भूमि गर्म होती है, तब हवा गर्म होकर ऊपर उठती है और उसका स्थान लेने के लिए महासागर से ठंडी हवा तेजी से अन्दर आती है, जो अपने साथ बादलों को लाती है , जिसे हम दक्षिण - पश्चिमी मानसून कहते हैं |

मौसम विभाग के अनुसार क्रोधित सूर्य भगवान भारत में जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, इनका लोगो भी कहता है, "आदित्य जयते वृष्टि " अर्थात सूरज से ही वर्षा होती है, और अच्छी वर्षा से ही जीवन पोषित होता है, तो ये सब आखिर क्यों बंद हो गया, अब न मानसून उतना घनघोर है, न ही लू --और इसके विपरीत औसत गर्म दिन तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं |

ये सब वास्तव में बहुत क्रमबद्ध है, अस्सी के दसक में चीन में आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई और नब्बे के दसक में भारत में, इससे जबर्दस्त परिवर्तन आया, बड़े शहर, फैक्ट्रीज, वाहन, और कंक्रीट के जंगल, इसी बीच विश्व की जनसँख्या 4.5 से बढ़कर 7 बिलियन पहुँच गयी, और इन सब के पनपने के लिए जरुरी थी भूमि, जिससे जंगल तेजी से घटने लगे और उनका स्थान ले लिया फैक्ट्री, रोड्स, रेल, शहर, और इन सब से भी बढ़कर इस बढ़ी हुई जनसंख्या का पेट भरने के किये खेती ने | दुनिया का फारेस्ट कवर 26% है और पिछले 20 वर्षों में इसमें 3% की गिरावट आ चुकी है, हमारे देश में तो ये महज 21% ही रह गया है, तो आखिर जंगल और मानसून में क्या सम्बन्ध है ?

जंगल और वर्षा में सम्बन्ध

IIT मुंबई के शोध में पाया गया है की जंगलों का होना बारिश के लिए जरुरी है, जंगलों में पेड़ों की गहरी जड़ें भूमि से पानी ग्रहण करती हैं और ये नमी प्रायः पत्तियों से होती हुई वातावरण में पहुँच जाती है, पर पिछले 30-40 सालों में इस प्रक्रिया में बहुत परिवर्तन आया है, विशेष रूप से उत्तर और उत्तर पूर्वी भारत में पेड़ों की कटायी से, अब जंगलों को काट कर खेती होने लगी है, और खेतों में फसलों की जड़ें इतनी गहरी नहीं होती हैं कि भूमि से नमी ग्रहण कर, वातावरण में पहुँचा सकें, और आधे समय तो ये खेत खाली ही पड़े रहते हैं |

स्टडी में पाया गया है कि ये प्रोसेस उत्तर भारत में 25% मानसूनी बारिश में बढ़ोत्तरी करता था और अब इसमें जबर्दस्त कमी आ गयी है, ये कमी दक्षिण और पश्चिमी भारत में भी आई है पर सागर के पास होने से उतना फर्क नहीं पड़ा है |

इसके अलावा दूसरे कारण भी हैं, बढ़ता CO2 उत्सर्जन, और इसके कारण गर्म होती दुनिया और पिघलते समुद्र और उनका बढ़ता तापमान | समुद्री तापमान के बढ़ने से अल नीनो बनता है जो मानसूनी बारिश को प्रभावित करता है | वातावरण में CO2 की मात्रा 280 पीपीएम से बढ़कर 400 पीपीएम पहुँच चुकी है अवधि है - 1750-2015, 40% की वृद्धि, और इसमें जबर्दस्त तेजी आयी है पिछले 20-30 वर्षों में जिसके भयानक परिणाम अब सामने आ रहे हैं |

CO2 उत्सर्जन के बहुत से कारण हैं जिनमे से प्रमुख हैं, कोल् बेस्ड पॉवर प्लांट्स, वाहनों का धुआं, आयल रिफैनेरी अदि | अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक है और अब बाकी दुनिया में भी इकनोमिक रिफॉर्म्स के बाद ये तेज़ी से बढ़ा है और ये सब हुआ है तेजी से बढती जनसंख्या को रोजगार और खाना उपलब्ध कराने के लिए, ये उत्सर्जन ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण है और इसके कारण समुद्री जल स्तर तेजी से बढ़ रहा है, और अगर यही रेट रहा तो दुनिया की साठ करोड़ जनसंख्या इससे प्रभावित होगी अकेले बांग्लादेश में ही 1 करोड़ लोगों के प्रभावित होने की आशंका व्यक्त की जा रही है और क्या अब हमारे पास इतनी भूमि और पीने योग्य पानी बचा है जो इन करोड़ों प्रभावित या क्लाइमेट रिफ्यूजी लोगों को बचा पायेगा ?

हमने डैम बनाये और अपनी नदियाँ सुखा दीं, शायद भविष्य में हम पॉवर पी के जिन्दा रहेंगे, और अगर इस जनसंख्या पर काबू नहीं पाया गया तो, रहने के लिए चन्द्रमा अभी भी उतना ही दूर है |

तो बहुत सारा सिस्टेमेटिक विकास या यूँ कहें विनाश इको सिस्टम का पिछले 20-25 वर्षों में हुआ है और अब समझ आता है कि ए.सी. सेल इन 10-15 वर्षों में क्यूँ इतनी तेज़ी से बढ़ी, अब बड़ा प्रश्न है कि क्या अब भी समय है और ये सब रुक सकता है, उत्तर है हाँ |

हमें सबसे पहले तो चीन का धन्यवाद देना होगा की एक चाइल्ड पालिसी के कारण वहां की जनसंख्या वृद्धि रुक चुकी है, वरना हम बस अनुमान ही लगा सकते हैं की अगर ये पालिसी नहीं अपनाई गयी होती तो क्या होता? अभी वहां दो बच्चों की अनुमति हो गयी है, और यही भारत को करना होगा | अगर दो बच्चों की नीति पर अमल किया गया तो ये वृद्धि अंततः रुक जाएगी, और साथ ही साथ हमें और भी ज्यादा सीमित संसाधनों में रहने की आदत डालनी चाहिए |

उमस तो बहाना है पर क्या हम अप्रैल –मई जब बेइंतहा गर्म हवा या लू चलती है और मौसम शुष्क होता है तब ए .सी. नहीं चलाते हैं तब जब बस कूलर से ही काम चल जाता है, संसाधन होने का ये मतलब नहीं कि हम उनका दुरुप्रयोग करें, आखिर ए .सी. की ये गर्मी वातावरण में ही तो निकल रही है और जो जबर्दस्त बिजली खर्च हो रही है वो अलग, और अभी भी हमारी ज्यादातर बिजली कोल् बेस्ड प्लांट्स से ही बन रही है |

एक बार तो हम ये कर के देखें शायद एक अच्छा मानसून हमें ए.सी. चलाने ही न दे, इसी तरह बहुत सारे लोग जिनके पास कार है वो फेब – मार्च, ओक्ट –नवम्बर के अच्छे मौसम में भी कार ही से ऑफिस जायेंगे जबकि उस समय वो पब्लिक ट्रांसपोर्ट यूज़ कर सकते हैं ----क्या आप चाहते हैं कि लगातार कम होती बारिश बिलकुल ही विलुप्त हो जाये ? आखिर हम आने वाली पीढ़ी को क्या दे कर जायेंगे, क्या मानसून भी उन्हें गूगल सर्च करना पड़ेगा क्योंकि तब शायद ये देखने को नहीं मिलेगा |

गवर्नमेंट को छोड़िये, और किसी को छोड़िये और सब को भी छोड़िये, क्या हम थोड़ा और सीमित और संतुष्ट हो सकते हैं?

उत्तर है हाँ – ये लम्बी यात्रा है, कठिन और दुरूह पर इसका अंत बहुत सुखद है बिल्कुल एक हिमालयन ट्रेक की तरह |

धन्यवाद् |

हर हर महादेव ||

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